Sunday, November 11, 2007

दिवाली के बहाने ३( आखिरी किश्त))



दिवाली चली गई अगले साल फिर आने के लिए, डर ये लगता है कि अगले साल रौनक कहीं औऱ कम ना हो जाएबचपन के कुछ हसीन सालों के बाद लगातार इसे कम होता देख रहा हूंदिवाली के एक दिन पहले रात को नींद नहीं आती थी उत्सुकता और उत्तेजना के मारे लगता था जैसे कि कैसे रात कटे और फिर दिवाली जाएसुबह होते ही घऱ की सफाई औऱ सजावट में ज़बर्दस्ती लग जाना, कई बार कोई काम नहीं होने पर व्यस्त होने के लिए ही कुछ करने लगना या फिर महज़ दिखावा ही कर लेनाकोई कुछ काम बताए तो खुशी इतनी ज्यादा कि पहाड़ पर चढ़ना भी बचकाना लगेएक तरफ घरौदो को अंतिम रूप दिया जा रहा है तो दूसरी तरफ दीदी रंगोली की तैयारी में लगी है। मां दिये की बाती बनाती दीयों को पानी में भिगोंती और फिर उनमें तेल डालकर रख रही है इसके साथ ही रात के खाने की तैयारी में भी जुटी होतीबाबुजी पूजा की तैयारी और सबका उत्साह बढ़ाने में लगे होते। कोई चादर और पर्दे लगाने में जुटा है तो कोई मेजपोश बदलने में हम सारे भाई घरौंदा, कंदील, बिजली की झालर और आतिशबाजी की तैयारी में डटे रहते रॉकेट जलाने के लिए बोतल का इंतज़ाम और रेल के लिए दो खंभो के बीच रस्सी दिन में ही बांध ली जातीदिवाली के दिन पटाखे महंगे मिलेंगे इस लिए पटाखे एक दो दिन पहले ही खरीद लिए जातेरात में जलाते समय परेशानी हो इसलिए पटाखों को दिन में धूप की गर्मी में रख देते
इतनी
सारी तैयारी करने के बाद आखिर दिवाली आती और फिर हम सब कुछ घंटों के लिए बाकी सब कुछ भूल जातेनहा धोकर नए कपड़े पहनते और दिया-मोमबत्ती जलाने में सारे लोग जुट जातेपहले घर के हर कोने में फिर बाहर और उसके बाद छत परहर तरफ दिये की कतार सजाने के बाद फिर बेचैनी होती कि कैसे जल्दी से पटाखों की बारी भी आए हालांकि जानबूझकर थोड़ा संयम भी लिया जाता दरअसल ये पटाखों के जल्दी खत्म हो जाने का डर होता जो जबर्दस्ती की संयम के रूप में सामने आताखैर थोड़ी देर बाद उसकी भी बारी ही जातीइसी बीच दीदी लोग घरौंदे की पूजा करतीं और उसके बाद खील बताशे बंटतेफिर उसके बाद पड़ोंसी दोस्तों के घर जाना मिठाई खाना साथ में पटाखे जलाना और शरारत करना कभी मटकी में रखकर बम फोड़ते तो कभी लोहे की पाइप में रखकर तोप बनातेयही सब करते-करते कितना वक्त बीत जाता फिर मां जबर्दस्ती बुलाकर खाना खिलाने बिठा देतीदाल पूड़ी और सब्जी , खीर के साथ कई चीजें होती जल्दी जल्दी खाते और फिर रौशनी देखतेसंयम से बचाए गए पटाखों को एक-एक कर जलाते, खुश होते सपने देखतेज्यादा रात होने पर लोग सोने की तैयारी करते तो मुझे बुरा लगता मेरा बस चले तो मैं सबको सारी रात जगाताखैर सबको सोता देख मैं भी सो जाता और ये दिवाली की सबसे मुश्किल घड़ी होतीबस दिल में यही उमड़ रहा होता कि दिवाली चली गई अब तो एक साल बाद आएगी... दिल को समझाते कि भैया दूज और छठ पूजा पास ही है लेकिन दुख कम नहीं होता। इतने दिनों की तैयारी और सबकुछ बस कुछ ही घंट में बीत गया ये कबूल करने के लिए हम तैयार नहीं होते। वक्त के साथ दिवाली तो गई ही कुछ खो जाने का वो ख्याल भी कहीं खो गया
निखिल रंजन

2 comments:

Asha Joglekar said...

सच बचपन की दीवाली याद आ गई ।

उन्मुक्त said...

समय के साथ, दिवाली का स्वयं का जोश कम होता जाता है पर समाज का बढ़ता जाता है। अक्सर यह दीवनगी भी पार कर देता है।