Sunday, April 15, 2007

हे दुष्टता तुझे नमन


हे दुष्टता, तुझे नमन
कुछ न होने से
शायद बुरा होना अच्छा है,
भलाई-सच्चाई में लगे हैं,
कौन से ससुरे सुरखाब के पंख..

घिसती हैं ऐड़ियां,
सड़कों पर सौ भलाईयां,
निकले यदि उनमें एक बुराई,
तो समझो पांच बेटियों पर हुआ
एक लाडला बेटा..

थोड़ी सी भलाई पर छा जाती है बुराई
जैसे टनों दूध पर तैरती है थोड़ी सी मलाई


मंजीत ठाकुर

Sunday, April 8, 2007

ज़िक्र-ए-मीर

मीर को कौन नहीं जानता... भारत पर बीस साल तक होते रहे अब्दाली के हमलों और हिंदुस्तान में हो रही आपसी लड़ाईयों की वजह से दिल्ली ऐसी तबाह और बरबाद हुई कि अगले डेढ़ सौ साल तक आबाद न हो सकी। इस युग के माली नुक़्सान और नैतिक पतन की भयानक तस्वीरें, मीर की शाइरी में सुरक्षित हैं। पेश है मीर की एक रचनी उम्मीद है कि देश के ताज़ा हालात से इसे जोड़कर देखने पर इसके अलग तरह के मायने नमूदार होंगे....

मुश्किल अपनी हुई जो बूद-ओ-बाश
आए लश्कर में हम बराए तलाश,

आन के देखी ? यां की तुऱ्फ मआश,
है लब-ए-नां प सौ जगह परखाश,

ने दम ए आब है न चमच ए आश ।

ज़िंदगानी हुई है सबपे बवाल,
कुंजड़े झींकते हैं रोते हैं बक़्क़ाल,
पूछ मत कुछ सिपाहियों का हाल,
एक तलवार बेचे है इक ढाल

बादशाह ओ वजीर सब कल्लाश


लाल खेमा जो है सिपहर असास.
पालें हैं रंडियों की उसके पास,
है जिना ओ शराब बे वस्वास,
रोब कर लीजिए यहीं से कियास,

क़िस्सा कोताह रीस हैं अय्याश।


( बूद-ओ-बाश- रहन, बराए तलाश- नौकरी की तलाश, तुऱ्फ- विचित्र, मआश-हालत,
लब-ए-नां- रोटी का किनारा, परखाश- घाव,दम ए आब - पानी का घूंट, चमच ए आश - चम्मच भर दलिया, बक़्क़ाल- बनिया, कल्लाश-ग़रीब, सिपहर असास-बहुत ऊंचा, बेबस्वास- बेधड़क, क़ियास- अनुमान, )