Thursday, November 1, 2007
स्वयंवर के मेले में...2
बहरहाल, ताबीज पहनने की मेरी ज़िद के बाद हम मय गाड़ी दूरदर्शन अहमदाबाद पहुंचे। यह कहने में मुझे कोईगुरेज़ नहीं कि डीडी के इस केंद्र की स्थिति दूसरे रीज़नल न्यूज़ यूनिट के मुकाबले बेहतर है। मेरे कहने का गर्ज ये कि कैंटीन के खानें में मुझे काकरोच नहीं दिखे। खाने से बास भी नहीं आ रही थी। मुझे निराशा हुई। अहमदाबाद डीडी के गेस्ट हाउस में बहुत झिझकते हुए मुझे एक कमरा दे दिया गया। कमरा कोई खास तरह से साफ़ नहीं था। बरसात का मौसम था यह साफ दिख रहा था क्योंकि कमरे को खोलते ही कई मेंढक मेरी तरफ लपके।
खैर काफी जद्दोजहद करने के बाद मुझे तरनेतर- जो कि ज़िला सुरेंद्रनगर में है. राजकोट के पास- भेजने के लिए इंतज़ामात किए गए। उनका कहना था कि हमने इसे स्थानीय स्तर पर सन १९९४ में खूब कवर किया था और अब इसे दोबारा २००७ में कवर करने का कोई औचित्य नहीं। पर मेरे गुणसूत्रों का दोष.. मैंने फिर ज़िद पकड़ ली। कि यह सवरेज तो मुझे करनी बही है। मैं अपने बास से वादा कर आया था। एक नई तरह की रिपोर्टर्स डायरी देने का।
गाड़ी मिली। ड्राइवर भी। वही जिसने मेरे ताबीज पर बवाल काटा था। एक कैमरा-कम-लाइटिंग असिटेंट। एक साउंड तकनीशियन। और हां... एक उनींदा कैमरामैन .. जो सारी राह मुझे इस बेकार की मगजमारी में न पड़ने की सलाह देता रहा। धूप सीधे चेहरे पर पड़ती रही। शाम के वक्त हम तरनेतर पहुंचे। शानदार सड़क। चौड़ी। हरियाली..गो कि बरसात का मौसम था। लेकिन पेड़ ज़्यादा बड़े नहीं। नाटे। सीधे मेले की जगह पर पहुंचे। मेले की जगह में सुगबुगाहट शुरु हो चुकी थी। चरखियां लगने लगीं थी। दुकानों के लिए बल्लियां लगाई जा रही थी। लोग बाग एक खास तरह की गाड़ी छकड़े से आ जा रहे थे। आगे से मोटरसाइकिल, पीछे से उसमें तांगा जोड़ दिया जाए तो क्या गाड़ी बनेगी.. वही। एक गाडी में पचीस-सत्ताइस लोग। उस भीड़ में घुस कर पिसते हुए सफर करने का लुत्फ ही क्या है।
मेले की जगह पर ज़्यादा कुछ नहीं थी। हमें पीने का भी नहीं मिला। जो भी था खारा। लेकिन लोग बड़े मीठे थे। बाहर से आया जानकर और अधिक मदद करते। दुकानें भी देखी। हर जगह मौदी के कट-आउट। बड़ी होर्डिंग्ज़। मोदीमय गुजरात। कहीं गांधी नहीं। मन बुझ गया।
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