Friday, November 2, 2007

दिवाली के बहाने 2


छोटका भैया घरौंदे में व्यस्त रहते तो बड़का भैया कंदील बनाने मेंबाकी हम दो छोटे भाई इन दोनों की मदद करके ही खुश हो लेते। कंदील बनाने की तैयारी तो दशहरे से ही शुरू हो जाती। दशहरे में तब घर भर के लोग गांव जाते जहां पर १० दिनों तक पूजा होती। पूजा पाठ औरमौजमस्ती की आपाधापी के बीच ही बड़का भैया बांस कटवाकर उसकी पतली-पतली कमाची बनाने का समय निकाल लेते। दशहरे के बाद वापस लौटने पर दिवाली की तैयारी शुरू हो जाती और तब भैया इन कमाचियों को धागे से बांध कर षट्कोण के आकार की कंदील बनाने में जुट जाते । भैया एक-एक कमाची को इतने करीने से छीलते कि एक भी रेशा दिखाई नहीं देता कमाची चिकनी होकर बिल्कुल प्लास्टिक के डंडे जैसी बन जाती। कमाची के बीच में लाल हरी प्लास्टिक की पन्नी चिपका दी जाती। कंदील उपर और नीचे दोनों तरफ से खुली होती और नीचे की तरफ बस दीया टिक सके इसलिए दो कमाचियों को पास-पास बांधकर एक स्टैंड जैसा बना दिया जाता। इसके बाद इस कंदील को एक लंबे से बांस के उपरी सिरे पर बांध कर बांस को आंगन में या फिर छत पर टिका दिया जाता ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली की बड़ी इमारतों की छत पर लाल रंग का बल्ब जलाते हैं जिससे कि यहां उतरनेवाले विमानों को पता चल सके। कंदील खूब उपर हवा में लटकती और रौशनी का दायरा आकाश में बिखरता रहता। हर दिन शाम होने से पहले कंदील उतारी जाती और उमें दिया जलाकर रख दिया जाता और बांस के खंभे को वापस खड़ा कर दिया जाता।बाद में जब दिये की जगह बिजली के बल्ब ने ले ली तो रोज रोज कंदील को उतार कर दिया जलाने की समस्या खत्म हो गई बस बिजली के बल्ब का स्विच ऑन करना होता था। लेकिन बिजली के बल्ब में एक समस्या थी बिजली चले जाने पर कंदील में अंधेरा छा जाता और गोपालगंज में बिजली वैसे ही आती जैसे दिल्ली में एमसीडी के नल में पानी। सच तो ये था कि बिजली का न होना शास्वत बात थी आना या रहना नहीं । मिट्टी के दिये में यही खूबी थी बिजली आए जाए कोई परवाह नहीं कंदील रौशन रहती। बल्कि बिजली ना होने पर तो अंधेरे में किसी उड़न तश्तरी जैसी दिखती।जैसे जैसे रात का अंधेरा घिरता कंदील की रौशनी बढ़ती जाती।

ये सिलसिला दिवाली के दिन से शुरू हो कर छठ के बाद भी कुछ दिनों तक चलता रहता बशर्ते उतारने और टांगने के दौरान कंदील सही सलामत रहे। बाद में जब रात की ओस और दिन की धूप से रंगीन पन्नियों का रंग उड़ जाता तो कंदील को समाधी दे दी जाती। अगले साल कंदील फिर बनती और हमारी उम्मीदों के दिए रौशन होते। कंदील टांगने की परंपरा कैसे शुरू हुई ये तो पता नहीं लेकिन ऐसा लगता है शायद आकाश से उतरती लक्ष्मी को अपने घर का पता बताने का जरिया माना गया होगा। कुछ भी हो हमारे लिए तो कंदील खिलौना भी थी और मोहल्ले में नाम कमाने का जरिया भी जिसकी कंदील सबसे उंची उसका नाम सबसे ज्यादा। वैसे मेरे हिस्से नाम तो नहीं आता लेकिन दोस्तों में रोब गांठने के लिए भाई के नाम का आना भी बहुत था। बाद में बाज़ार में पतंग की दुकानों पर बने बनाए कंदील बिकने लगे और लोग इसे ही अपने छत पर या आंगन में टांगकर परंपरा निभाने लगे लेकिन इस कंदील में वो बात नहीं थी। आखिर वो हमारी मेहनत से हाथ की बनाई कंदील थी जिसकी रौशनी हमें ज्यादा लगनी ही थी। पिछले ९ सालों से दिल्ली की दिवाली देख रहा हूं। सालों पहले किसी अख़बार में शायद जनसत्ता में ही पढ़ा था दिल्ली में दीपावली नहीं बल्बावली मनती है यहां आया तो लेख की सच्चाई अपनी आंखो से देखी । वैसे अगर दिल्ली में घरौंदे नहीं बनते या कंदीले नहीं सजती तो इसमें सिर्फ लोगों को शौक या फिर परंपरा का न होना ही वजह नहीं है। मकानों के इस जंगल में ना तो खुली छत बची है ना ही आंगन इनकी जगह बालकनी ने ले ली वो भी सबके मुकद्दर में नहीं। अब एक छोटी सी बालकनी में कपड़े सुखाने, कूलर के लिए जगह बनाने और मुद्दतों बाद मिली कभी फुर्सत में बतियाने के बाद इतनी जगह बचती कहां है कि कोई घरौंदा या कंदील सजाए। जगह और समय की कमी ने नौनिहालों से परंपराओं की विरासत छीन ली। लेकिन गोपालगंज में ऐसा क्यों हुआ मालूम नहीं अब या तो कंदील टंगती नहीं और अगर टंगती भी है तो बाज़ार वाली जिसमें न तो लगन से की गई मेहनत की चमक नहीं होती ना ही उससे लगाव। जारी...
निखिल रंजन

1 comment:

Anonymous said...

बहुत सुंदर निखिल बाबू। आपकी इस प्रतिभा के हम क़ायल हो गये। स्‍मृतियां हमेशा अच्‍छी भाषा लेकर आती है। अपने वर्तमान में स्‍मृति की चीनी घोल कर बनायी हुई शर्बत एक शख्‍सीयत का निर्माण भी करती है। आप जारी रखें। हम इंतज़ार में रहेंगे।