दिवाली चली गई अगले साल फिर आने के लिए, डर ये लगता है कि अगले साल रौनक कहीं औऱ कम ना हो जाए। बचपन के कुछ हसीन सालों के बाद लगातार इसे कम होता देख रहा हूं। दिवाली के एक दिन पहले रात को नींद नहीं आती थी उत्सुकता और उत्तेजना के मारे लगता था जैसे कि कैसे रात कटे और फिर दिवाली आ जाए। सुबह होते ही घऱ की सफाई औऱ सजावट में ज़बर्दस्ती लग जाना, कई बार कोई काम नहीं होने पर व्यस्त होने के लिए ही कुछ करने लगना या फिर महज़ दिखावा ही कर लेना। कोई कुछ काम बताए तो खुशी इतनी ज्यादा कि पहाड़ पर चढ़ना भी बचकाना लगे। एक तरफ घरौदो को अंतिम रूप दिया जा रहा है तो दूसरी तरफ दीदी रंगोली की तैयारी में लगी है। मां दिये की बाती बनाती दीयों को पानी में भिगोंती और फिर उनमें तेल डालकर रख रही है इसके साथ ही रात के खाने की तैयारी में भी जुटी होती। बाबुजी पूजा की तैयारी और सबका उत्साह बढ़ाने में लगे होते। कोई चादर और पर्दे लगाने में जुटा है तो कोई मेजपोश बदलने में हम सारे भाई घरौंदा, कंदील, बिजली की झालर और आतिशबाजी की तैयारी में डटे रहते। रॉकेट जलाने के लिए बोतल का इंतज़ाम और रेल के लिए दो खंभो के बीच रस्सी दिन में ही बांध ली जाती। दिवाली के दिन पटाखे महंगे मिलेंगे इस लिए पटाखे एक दो दिन पहले ही खरीद लिए जाते। रात में जलाते समय परेशानी न हो इसलिए पटाखों को दिन में धूप की गर्मी में रख देते।
इतनी सारी तैयारी करने के बाद आखिर दिवाली आती और फिर हम सब कुछ घंटों के लिए बाकी सब कुछ भूल जाते। नहा धोकर नए कपड़े पहनते और दिया-मोमबत्ती जलाने में सारे लोग जुट जाते। पहले घर के हर कोने में फिर बाहर और उसके बाद छत पर। हर तरफ दिये की कतार सजाने के बाद फिर बेचैनी होती कि कैसे जल्दी से पटाखों की बारी भी आए हालांकि जानबूझकर थोड़ा संयम भी लिया जाता दरअसल ये पटाखों के जल्दी खत्म हो जाने का डर होता जो जबर्दस्ती की संयम के रूप में सामने आता। खैर थोड़ी देर बाद उसकी भी बारी आ ही जाती। इसी बीच दीदी लोग घरौंदे की पूजा करतीं और उसके बाद खील बताशे बंटते। फिर उसके बाद पड़ोंसी दोस्तों के घर जाना मिठाई खाना साथ में पटाखे जलाना और शरारत करना कभी मटकी में रखकर बम फोड़ते तो कभी लोहे की पाइप में रखकर तोप बनाते। यही सब करते-करते कितना वक्त बीत जाता फिर मां जबर्दस्ती बुलाकर खाना खिलाने बिठा देती। दाल पूड़ी और सब्जी , खीर के साथ कई चीजें होती जल्दी जल्दी खाते और फिर रौशनी देखते। संयम से बचाए गए पटाखों को एक-एक कर जलाते, खुश होते सपने देखते। ज्यादा रात होने पर लोग सोने की तैयारी करते तो मुझे बुरा लगता मेरा बस चले तो मैं सबको सारी रात जगाता। खैर सबको सोता देख मैं भी सो जाता और ये दिवाली की सबसे मुश्किल घड़ी होती। बस दिल में यही उमड़ रहा होता कि दिवाली चली गई अब तो एक साल बाद आएगी... दिल को समझाते कि भैया दूज और छठ पूजा पास ही है लेकिन दुख कम नहीं होता। इतने दिनों की तैयारी और सबकुछ बस कुछ ही घंट में बीत गया ये कबूल करने के लिए हम तैयार नहीं होते। वक्त के साथ दिवाली तो गई ही कुछ खो जाने का वो ख्याल भी कहीं खो गया।
निखिल रंजन
2 comments:
सच बचपन की दीवाली याद आ गई ।
समय के साथ, दिवाली का स्वयं का जोश कम होता जाता है पर समाज का बढ़ता जाता है। अक्सर यह दीवनगी भी पार कर देता है।
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