आठ दिन बाद ही दिवाली है, पता नहीं नज़र धुंधली हो गई है या कान कमज़ोर हो गए वैसी रौनक नहीं दिख रही जिसे देखने की बचपन से आदत है या फिर शायद दिल्ली के शोर और भीड़ में बचपन का वो मासूम उत्साह कहीं खो गया है। जेबखर्च का एक-एक पैसा बचाकर पटाखों का बजट बढ़ाना, घर की सफाई मे ज़बर्दस्ती ज़िद करके दीदी, भैया और मां के साथ शामिल होना। घरौंदा बनाने के लिए गत्ते, रंगीन काग़ज़ गोंद और दूसरी चीजों का इंतज़ाम करना भैया से कहके मैं उसमें बिजली की वायरिंग भी करवाता। वैसे मेरे घर में बहुत पहले से घरौंदा बनाने का दायित्य छोटका भैया(मझले भैया को मैं इसी नाम से बुलाता हूं) उठाते थे। पहले मिट्टी के गारे और इंटो से और बाद में गत्ते और रंगीन कागज से । उनके बनाए घरौंदे का एक्सक्लूसिव गुण था कि उसमें बिजली की वायरिंग भी होती थी। पूरे मोहल्ले में हमारा घरौंदा सबसे अच्छा होता । भैया को घरौंदा बनाने का इतना शौक था कि जब भी किसी अच्छे घर का डिज़ाइन देखते उसे याद कर लेते और फिर दिवाली के घरौंदे में उस डिजाइन का इस्तेमाल करते । मोहल्ले और इलाक़े के अनुभवी लोगों के साथ बाबुजी भी तब भैया में भविष्य का इंजीनियर देखते थे। हालांकि घरौंदा बनने के दौरान कई बार अनाधिकार छेड़छाड़ करने पर भैया का थप्पड़ खाकर मेरा उत्साह आंसूओं में बह जाता लेकिन जल्दी ही मां के आंचल की गरमाहट इस पिघले उत्साह को वापस दिल में लौटा देती। घरौंदा देखने पूरा मोहल्ला जमा होता और दिवाली बाद के कुछ दिनों तक सबसे बढ़िया घरौंदा बनाने वाले के छोटे भाई होने के गर्वातिरेक में मैं मगन रहता।
भैया जब हाईस्कूल के बाद पढ़ाई करने मुजफ्फरपुर चले गए तब भी ये सिलसिला बना रहा वो दिवाली से पहले घर आ जाते और फिर घरौंदो की तैयारी शुरू हो जाती। स्कूल जाने से पहले और लौट के आने के बाद कई हफ्ते तक मैं दिवाली के अलावा और कुछ सोचता ही न था। खेलना, दोस्तों से मिलना सबकुछ कम हो जाता या फिर बंद उनसे मिलने पर बात होती तो घरौंदे की। हर दिन घरौंदे को धीरे धीरे करके आकार लेते हुए देखना किसी आर्किटेक्ट के पूरे होते सपने जैसा होता और हमारी खुशी भी घरौंदे की तरह बढ़ती रहती । १९९० में छोटका भैया समय पर घर नहीं आ सके शायद परीक्षाओं के कारण और तब घरौंदा बनाने की कमान मेरे कंधो पर आई । पहली बार जब घरौंदा बना रहा था तब बाबूजी ने पूछा तुम्हारे घरौंदे का बजट कितना है मैंने हिसाब लगाकर बताया तीस रूपये। इसके बाद उन्होंने इसके लिए अपनी तरफ से ५ रुपये के अनुदान की घोषणा की मेरी खुशी के तो कहने ही क्या ? पचास पैसा देते तो साथ में सोच समझकर खर्च करने की हिदायत भी और वही बाबूजी पांच रुपये देने का एलान कर रहे थे मेरे लिए ये बड़ी उपलब्धि थी। पूरे उत्साह से घरौंदा बनाना शुरू किया किसी तरह बाकी तो सबकुछ हो गया लेकिन बिजली की वायरिंग आती नहीं थी तो भैया की मदद मांगी और फिर घरौंदा तैयार हुआ। घर के आसपास हरियाली तैयार करने के लिए लकड़ी के बुरादे को हरे रंग में रंग देते हम लोग। तब घर में साइकिल भी नहीं थी लेकिन घरौंदे के पोर्च में खड़ी करने के लिए खिलौना वाली अंपाला और मारूती कार जरूर थी, एक एंबेसडर भी थी जिसे हम घरौंदे के बगल में या फिर पिछवाड़े में खड़ी करते ये अहसास शायद तब भी था कि अब ये कार पुरानी हो चुकी है, कागज का बना टीवी और प्लास्टिक का फ्रिज भी था। मेहमानों के लिए सोफे और बढ़िया सा अंग्रेजी स्टाइल वाला टी-सेट भी था जिसमें चाय की केतली के साथ दूध और चीनी के लिए अलग प्याली होती थी। उस समय तक हमने ऐसे टी सेट खिलौनौं और फिल्मों में ही देखे थे आजकल बॉस के केबिन में देखते हैं। छत पर लगा लकड़ी के सींक का बना एंटेना हमारे सपनों जैसे उंचा था और घरौंदा हमारे सपनों की तामीर। ये सारे खिलौने हम बड़ी जतन से सालों भर संभाल कर रखते और सिर्फ दिवाली के समय बाहर निकालते सच तो ये है कि वो खिलौने नहीं हमारे सपने थे । घरौंदा जो हर साल हमारे आंगन में बनता और दिलों में सपने जगाता।
आज जिंदगी की हक़ीकत ने इस सपने को आगर पूरी तरह से तोड़ा नहीं तो छोटा ज़रूर किया है। लेकिन तकलीफ इस बात की नहीं बल्कि इस बात की है कि वो घरौंदे कही खो गए हैं पांच साल पहले दिवाली मे घर गया था लेकिन ना तो मेरे घर में ना ही किसी औऱ घर में घरौंदा नज़र आया। सपने तो बिखरे ही सपना दिखाने वाले घरौंदे भी गायब हो गए। दिवाली के दिन बहने इसी घरौंदे में मिट्टी के खिलौने वाले बर्तनों में खील-बताशे भर कर पूजा करतीं। बाद में ये खील बताशे भाइयों को खाने के लिए मिलते। बताशे की मिठास भाई बहन के रिश्तों में घुलती। जारी...
निखिल रंजन
4 comments:
दिवाली पर मिट्टी के घरौंदे, मैं तो भूल ही गया था। सचमुच अब त्यौहारों पर पहले जैसा रौनक कम ही दिखती है। वैसे, कभी-कभी मुझे लगता है कि हम बड़े हो गए तो, हमें ही वो रौनक नहीं दिखती है।
निखिल जी क्या कहूं?.. देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज़ पर आपने मेरे मन की बात रखी है। खैर आपने कायदे से लिखना शुरु कर ही दिया ये बड़ी राहत की बात है। लेकिन गुरु जो लिखा..मस्त लिखा है। कुछ भुकभुकाती यादें और भी आएंगी सामने इसी दीवाली के बहाने तो जगमगाएगा मन भी..। आपसे बिना पूछे आपका यह पोस्ट अपने ब्लाग पर छाप रहा हूं। बुरा मत मानिएगा। बधाई
सच है घरौंदे गायब हो रहे हैं...घर और घर में प्रकाश पर्व पर बनाए आपके वो घरौंदे ...रिश्तों और उनकी गर्माहट का प्रमाण था...आज सिर्फ उनकी स्मृतियाँ हैं...इस कंकरीट के जंगल में न घर है न वो घरौंदे..
सब वो सुख हैं जिन्हें पाने के लिए हमारी जद्दोजहद जारी है लेकिन इतना पाकर भी नाखुश है...और खुशी के लिए अतीत की यादों में कुछ लम्हे उधार ले रहे हैं...
ग़ालिब के शब्दों में...
उग आया है घर में सब्जोबाग ग़ालिब,
हम बियाबाँ में हैं और घर में बहार आई है...
निखिलजी
दीवाली पर घरौंदे बनाने का रिवाज तो हमारे यहाँ नहीं था, पर इधर उधर से फूल इकट्ठे करना और फिर पूजा के लिये सजावट करना आदि काम हम भी बड़े उत्साह से करते थे।
अब ना वो दीवाली रही ना वह उत्साह!!
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