मोदी जीत गए. मेरी प्रतिक्रया थोड़े देर से सही आनी चाहिए थी.. आ रही है। लोग हल्ला कर रहे हैं सांप्रदायिकता की जीत हो गई... मोदी को भी लोगों ने चुना है। आप कौन होते हैं बीच में टांग अडाने वाले? ढेर सारे विरोध के बीच मोदी ने मोदीत्व को परवान चढ़ा दिया।
अब जीत गए हैं..तो कल तक उनका विरोध करने वाले भाई-बंदे भी उनके ही गीत गाएंगे। उनका विरोध.. माफ कीजिएगा उनके विरोध में ताताथैया करके ज़मीन-असमान एक कर देने वाले चैनल भी हार मान गए हं। उन्हें पहले ङी खयाल नही ंरहा था.. कि ये चुनाव गुजरात दंगों के बाद नहीं हो रहे।
दंगो के बाद का चुनाव पांच बरस पहले खत्म हो चुका है। ये चुनाव तो विकास के मुद्दे पर लड़े गए थे। उधर लालू भन्ना रहे हैं। सोनिया जी ने कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक कर ली। किसके सर पर तलवार की धार होगी.. ये भी दिख जाएगा..लेकिन जिन मोदी के खिलाफ विरोधी और उनके दल के भीतर के विरोधी सर उठाए थे। अब नाटक उनके सर को कुचलने को लेकर होगा। खुद को सेकुलर कहने वाले लोग वास्तव में सेकुलर हैं क्या? दरअसल सेक्युलरिज़्म की परिभाषा ही इन्हें याद नहीं।
वोट की खातिर अल्पसंख्यकों (पढ़े- मुसलमानों के लिए) अलग से बजट की व्यवस्था करने वालो के लिए धर्मनिरपेक्षता की बात करनी बेमानी है। मोदी को लोगों ने वोट देकर जिताया है, इस तथ्य को खेल भावना के साथ स्वीकार करें तो बेहतर होगा। जिस पार्टी में परिवार पार्टी से भी ऊपर है, ( और मैं यह कोई नई बात नही कह रहा, सर्वविदित है) उसके लिए व्यक्तिवाद का मुकाबला हास्यास्पद ही है।
युवराज की जय और जय माता दी कहने वाले नौटंकीबाजों के लिए गुजरात भले ही आम चुनाव के लिए कैलेंडर का काम करें, लेकिन गुजरात के लोगों ने यह साबित कर दिया कि जीत उसकी होगी, जो आम आदमी के लिए काम करेगा। जो न खाएगा और न खाने देगा। और हां, युवराज एक बार फिर चुनावी दौड़ में फिसड्डी साबित हुए। यूपी में उनके सघन अभियान ने कांग्रेस की तीन सीटें कम कर दीं, गुजरात में कुछ बढ़त के बावजूद माता-पुत्र टांय-टांय फिस्स ही रहे। हां, जल्दी चुनाव को लेकर घबराने वाले सांसद अब राहत की सांस ले रहे होंगे। क्योंकि लोक सभा चुनाव तो तयशुदा वक्त पर ही होंगे।
Thursday, December 27, 2007
Tuesday, November 13, 2007
लस्ट फॉर लाइफ
दोस्तों, मैं हाल ही में मशहूर चित्रकार विंसेंट वॉन गॉग की जीवनी पढ़ रहा था। लस्ट फॉर लाइफ नाम की िस उपन्यासनुमा जीवनी को इरविंग स्टोन ने लिखा है। मैं सोच रहा था कि जो कुछ मैंने पढ़ा है, जो कुछ प्रेरक मुझे मिला..कुछ आपसे भी शेयर किया जाए..
अगर देखा जाए तो अपनी समग्रता में वॉन गॉग का जीवन भी किसी पेंटिंग सरीखा ही है। जिसमें स्थापित मान्यताओं के खिलाफ़ विरोधाभासों का अजीब, आकर्षक और चौंका देने वाला मिश्रण जैसी कुछ है। उसके जीवन में अगर दुख था, तो उतना ही तीव्र उल्लास भी था, जो सभी तरह की की विषमताओं का सामना करने के बाद पनपता है। उसमें अगर उपेक्षा की नितांत निजी पीड़ा थी, तो उतनी ही विशाल सहृदयता भी, जो दूसरों की पीड़ा भी अपनाने की इच्छा जगाती है।
कलाकारों के जीवन का मूल माने जाना वाला बिखराव वॉन गॉग के जीवन में भी कम न था। लेकिन उसमें एक क़िस्म का ऑर्डर भी था, जिसने ताज़िंदगी उसके पहले प्यार चित्राकारी से उसे बांधे रखा। इन सबके अलावा एक और बात जो विंसेंट में थी, वह थी जीवन के प्रति इसकी ईमानदारी और आस्था। बिना किसी लागलपेट के और समझौते के जिए गए इस जीवन ने ही वॉन गॉग के संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व को एक प्रेरक विराटता बख्शी है। यह ईमानदारी, यह आस्था--ग़ौर से देखें तो-- एक एक ब्रश स्ट्रोक के पीछे छिपी बेचैनी, अधीरता और सच्चाई में-- उसने दुनिया को अपनी विरासत सौंपी है।
लस्ट फॉर लाईफ-- हर बार इस अबूझ शख्सियत के चरित्र की नई परतें खोलने का अहसास देता है। विंसेंट के नाम और काम से अपिरचित व्यक्ति के लिए इतना जान लेना ज़रूरी है कि वह सच्चा और अभागा कलाकार था। अपने छोटे भाई के पैसों पर पलने वाला अव्यावहारिक व्यक्ति, जिसने बेल्जियम में बोरीनोज़ के कोयला खदानों के मज़दूरों से लेकर बेवफा़ उर्सुला तक और वेश्या रेचेल तक को समान रूप से प्यार दिया। ( रैचैल को तो उसने प्यार में अपना कान भी भेंट में दे दिया था।)
कभी इवांजेलिस्ट, कभी कला दीर्घा के क्लर्क, कभी डॉक्टर तो कभी हमदर्द चित्रकार के तौर पर...। विंसेंट ने चित्रों में जड़ जीवन( स्टिल लाइफ) की बजाय कूची के ज़रिए प्रवाहमान जीवन की रचना करने को ज्यादा अहमियत दी। ये बात और है कि इंप्रेशनिज़्म के जन्म के उस शुरूआती दौर में उसके काम को उसके जीवन काल में पहचान नहीं मिली, लेकिन सूरजमुखी हों, या फिर स्टारी नाइट... विंसेंट ने चित्रकारी को एक नई सीरत दी। वह जीना चाहता था,पर जी न सका..
विंसेंट वॉन गॉग की जीवनी पढ़ कर मैं बहुत अधिक प्रभावित हुआ हूं.. पाठकों को उसके जीवन और उसके काम के बारे में वक्त-वक्त पर बताता रहूंगा- मंजीत ठाकुर
Monday, November 12, 2007
ग्लोबल वार्मिग को कम करेगा प्लैंकटन
महासागरों में पानी की सतह पर तैरने वाले छोटे-छोटे प्लवक जीव (प्लैंकटन) कार्बन डाईआक्साइड की भारी मात्रा सोख कर विश्व के बढ़ते तापमान (ग्लोबल वार्मिग) को कम कर सकते हैं।
जर्मनी में काइल नामक जगह की लाइबनित्ज इंस्टीट्यूट आफ मैरीन साइंसेज के मुताबिक ये जीव लगभग 39 फीसदी अधिक कार्बन डाईआक्साइड को सोख सकते हैं। हालांकि, ध्यान देने वाली बात ये भी है इन जीवों की मौत के बाद उनकी कोशिकाओं में मौजूद कार्बन डाईआक्साइड महासागरीय खाद्य सामग्री और महासागर की खाद्य श्रृंखला (फूड बेव) को प्रभावित कर सकती है।
लेकिन यह तय है कि दुनिया भर में जेट विमानों से लेकर मोटर साइकिलों में इस्तेमाल हो रहे जैव ईधन के इस्तेमाल से पैदा हुई आधे से अधिक कार्बन डाईआक्साइड को सोख कर भविष्य में बढ़ने वाले तापमान को कम किया जा सकता है।
हालांकि वैज्ञानिक पत्रिका नेचर ने इस बारे में ्पनी टिप्पणी देते हुए कहा है कि इन जीवों की मौत के बाद उनकी कोशिकाओं के विघटन के लिए अधिक ऑक्सीजन की जरूरत पडे़गी। इससे अन्य जीवों के लिए ऑक्सीजन की कमी हो जाएगी। एक आशंका ये भी ज़ाहिर की जा रही है कि अधिक कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा वाले ऐसे जीवों को खाने वाले अन्य जीवों की वृद्धि दर और उत्पादन क्षमता प्रभावित होगी।
लेकिन गरम होती जा रही धरती के लिए एक नई राह तो है ही।
मंजीत ठाकुर
Sunday, November 11, 2007
दिवाली के बहाने ३( आखिरी किश्त))
दिवाली चली गई अगले साल फिर आने के लिए, डर ये लगता है कि अगले साल रौनक कहीं औऱ कम ना हो जाए। बचपन के कुछ हसीन सालों के बाद लगातार इसे कम होता देख रहा हूं। दिवाली के एक दिन पहले रात को नींद नहीं आती थी उत्सुकता और उत्तेजना के मारे लगता था जैसे कि कैसे रात कटे और फिर दिवाली आ जाए। सुबह होते ही घऱ की सफाई औऱ सजावट में ज़बर्दस्ती लग जाना, कई बार कोई काम नहीं होने पर व्यस्त होने के लिए ही कुछ करने लगना या फिर महज़ दिखावा ही कर लेना। कोई कुछ काम बताए तो खुशी इतनी ज्यादा कि पहाड़ पर चढ़ना भी बचकाना लगे। एक तरफ घरौदो को अंतिम रूप दिया जा रहा है तो दूसरी तरफ दीदी रंगोली की तैयारी में लगी है। मां दिये की बाती बनाती दीयों को पानी में भिगोंती और फिर उनमें तेल डालकर रख रही है इसके साथ ही रात के खाने की तैयारी में भी जुटी होती। बाबुजी पूजा की तैयारी और सबका उत्साह बढ़ाने में लगे होते। कोई चादर और पर्दे लगाने में जुटा है तो कोई मेजपोश बदलने में हम सारे भाई घरौंदा, कंदील, बिजली की झालर और आतिशबाजी की तैयारी में डटे रहते। रॉकेट जलाने के लिए बोतल का इंतज़ाम और रेल के लिए दो खंभो के बीच रस्सी दिन में ही बांध ली जाती। दिवाली के दिन पटाखे महंगे मिलेंगे इस लिए पटाखे एक दो दिन पहले ही खरीद लिए जाते। रात में जलाते समय परेशानी न हो इसलिए पटाखों को दिन में धूप की गर्मी में रख देते।
इतनी सारी तैयारी करने के बाद आखिर दिवाली आती और फिर हम सब कुछ घंटों के लिए बाकी सब कुछ भूल जाते। नहा धोकर नए कपड़े पहनते और दिया-मोमबत्ती जलाने में सारे लोग जुट जाते। पहले घर के हर कोने में फिर बाहर और उसके बाद छत पर। हर तरफ दिये की कतार सजाने के बाद फिर बेचैनी होती कि कैसे जल्दी से पटाखों की बारी भी आए हालांकि जानबूझकर थोड़ा संयम भी लिया जाता दरअसल ये पटाखों के जल्दी खत्म हो जाने का डर होता जो जबर्दस्ती की संयम के रूप में सामने आता। खैर थोड़ी देर बाद उसकी भी बारी आ ही जाती। इसी बीच दीदी लोग घरौंदे की पूजा करतीं और उसके बाद खील बताशे बंटते। फिर उसके बाद पड़ोंसी दोस्तों के घर जाना मिठाई खाना साथ में पटाखे जलाना और शरारत करना कभी मटकी में रखकर बम फोड़ते तो कभी लोहे की पाइप में रखकर तोप बनाते। यही सब करते-करते कितना वक्त बीत जाता फिर मां जबर्दस्ती बुलाकर खाना खिलाने बिठा देती। दाल पूड़ी और सब्जी , खीर के साथ कई चीजें होती जल्दी जल्दी खाते और फिर रौशनी देखते। संयम से बचाए गए पटाखों को एक-एक कर जलाते, खुश होते सपने देखते। ज्यादा रात होने पर लोग सोने की तैयारी करते तो मुझे बुरा लगता मेरा बस चले तो मैं सबको सारी रात जगाता। खैर सबको सोता देख मैं भी सो जाता और ये दिवाली की सबसे मुश्किल घड़ी होती। बस दिल में यही उमड़ रहा होता कि दिवाली चली गई अब तो एक साल बाद आएगी... दिल को समझाते कि भैया दूज और छठ पूजा पास ही है लेकिन दुख कम नहीं होता। इतने दिनों की तैयारी और सबकुछ बस कुछ ही घंट में बीत गया ये कबूल करने के लिए हम तैयार नहीं होते। वक्त के साथ दिवाली तो गई ही कुछ खो जाने का वो ख्याल भी कहीं खो गया।
निखिल रंजन
Friday, November 2, 2007
दिवाली के बहाने 2
छोटका भैया घरौंदे में व्यस्त रहते तो बड़का भैया कंदील बनाने में। बाकी हम दो छोटे भाई इन दोनों की मदद करके ही खुश हो लेते। कंदील बनाने की तैयारी तो दशहरे से ही शुरू हो जाती। दशहरे में तब घर भर के लोग गांव जाते जहां पर १० दिनों तक पूजा होती। पूजा पाठ औरमौजमस्ती की आपाधापी के बीच ही बड़का भैया बांस कटवाकर उसकी पतली-पतली कमाची बनाने का समय निकाल लेते। दशहरे के बाद वापस लौटने पर दिवाली की तैयारी शुरू हो जाती और तब भैया इन कमाचियों को धागे से बांध कर षट्कोण के आकार की कंदील बनाने में जुट जाते । भैया एक-एक कमाची को इतने करीने से छीलते कि एक भी रेशा दिखाई नहीं देता कमाची चिकनी होकर बिल्कुल प्लास्टिक के डंडे जैसी बन जाती। कमाची के बीच में लाल हरी प्लास्टिक की पन्नी चिपका दी जाती। कंदील उपर और नीचे दोनों तरफ से खुली होती और नीचे की तरफ बस दीया टिक सके इसलिए दो कमाचियों को पास-पास बांधकर एक स्टैंड जैसा बना दिया जाता। इसके बाद इस कंदील को एक लंबे से बांस के उपरी सिरे पर बांध कर बांस को आंगन में या फिर छत पर टिका दिया जाता ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली की बड़ी इमारतों की छत पर लाल रंग का बल्ब जलाते हैं जिससे कि यहां उतरनेवाले विमानों को पता चल सके। कंदील खूब उपर हवा में लटकती और रौशनी का दायरा आकाश में बिखरता रहता। हर दिन शाम होने से पहले कंदील उतारी जाती और उसमें दिया जलाकर रख दिया जाता और बांस के खंभे को वापस खड़ा कर दिया जाता।बाद में जब दिये की जगह बिजली के बल्ब ने ले ली तो रोज रोज कंदील को उतार कर दिया जलाने की समस्या खत्म हो गई बस बिजली के बल्ब का स्विच ऑन करना होता था। लेकिन बिजली के बल्ब में एक समस्या थी बिजली चले जाने पर कंदील में अंधेरा छा जाता और गोपालगंज में बिजली वैसे ही आती जैसे दिल्ली में एमसीडी के नल में पानी। सच तो ये था कि बिजली का न होना शास्वत बात थी आना या रहना नहीं । मिट्टी के दिये में यही खूबी थी बिजली आए जाए कोई परवाह नहीं कंदील रौशन रहती। बल्कि बिजली ना होने पर तो अंधेरे में किसी उड़न तश्तरी जैसी दिखती।जैसे जैसे रात का अंधेरा घिरता कंदील की रौशनी बढ़ती जाती।
ये सिलसिला दिवाली के दिन से शुरू हो कर छठ के बाद भी कुछ दिनों तक चलता रहता बशर्ते उतारने और टांगने के दौरान कंदील सही सलामत रहे। बाद में जब रात की ओस और दिन की धूप से रंगीन पन्नियों का रंग उड़ जाता तो कंदील को समाधी दे दी जाती। अगले साल कंदील फिर बनती और हमारी उम्मीदों के दिए रौशन होते। कंदील टांगने की परंपरा कैसे शुरू हुई ये तो पता नहीं लेकिन ऐसा लगता है शायद आकाश से उतरती लक्ष्मी को अपने घर का पता बताने का जरिया माना गया होगा। कुछ भी हो हमारे लिए तो कंदील खिलौना भी थी और मोहल्ले में नाम कमाने का जरिया भी जिसकी कंदील सबसे उंची उसका नाम सबसे ज्यादा। वैसे मेरे हिस्से नाम तो नहीं आता लेकिन दोस्तों में रोब गांठने के लिए भाई के नाम का आना भी बहुत था। बाद में बाज़ार में पतंग की दुकानों पर बने बनाए कंदील बिकने लगे और लोग इसे ही अपने छत पर या आंगन में टांगकर परंपरा निभाने लगे लेकिन इस कंदील में वो बात नहीं थी। आखिर वो हमारी मेहनत से हाथ की बनाई कंदील थी जिसकी रौशनी हमें ज्यादा लगनी ही थी। पिछले ९ सालों से दिल्ली की दिवाली देख रहा हूं। सालों पहले किसी अख़बार में शायद जनसत्ता में ही पढ़ा था दिल्ली में दीपावली नहीं बल्बावली मनती है यहां आया तो लेख की सच्चाई अपनी आंखो से देखी । वैसे अगर दिल्ली में घरौंदे नहीं बनते या कंदीले नहीं सजती तो इसमें सिर्फ लोगों को शौक या फिर परंपरा का न होना ही वजह नहीं है। मकानों के इस जंगल में ना तो खुली छत बची है ना ही आंगन इनकी जगह बालकनी ने ले ली वो भी सबके मुकद्दर में नहीं। अब एक छोटी सी बालकनी में कपड़े सुखाने, कूलर के लिए जगह बनाने और मुद्दतों बाद मिली कभी फुर्सत में बतियाने के बाद इतनी जगह बचती कहां है कि कोई घरौंदा या कंदील सजाए। जगह और समय की कमी ने नौनिहालों से परंपराओं की विरासत छीन ली। लेकिन गोपालगंज में ऐसा क्यों हुआ मालूम नहीं अब या तो कंदील टंगती नहीं और अगर टंगती भी है तो बाज़ार वाली जिसमें न तो लगन से की गई मेहनत की चमक नहीं होती ना ही उससे लगाव। जारी...
निखिल रंजन
Thursday, November 1, 2007
दिवाली के बहाने
आठ दिन बाद ही दिवाली है, पता नहीं नज़र धुंधली हो गई है या कान कमज़ोर हो गए वैसी रौनक नहीं दिख रही जिसे देखने की बचपन से आदत है या फिर शायद दिल्ली के शोर और भीड़ में बचपन का वो मासूम उत्साह कहीं खो गया है। जेबखर्च का एक-एक पैसा बचाकर पटाखों का बजट बढ़ाना, घर की सफाई मे ज़बर्दस्ती ज़िद करके दीदी, भैया और मां के साथ शामिल होना। घरौंदा बनाने के लिए गत्ते, रंगीन काग़ज़ गोंद और दूसरी चीजों का इंतज़ाम करना भैया से कहके मैं उसमें बिजली की वायरिंग भी करवाता। वैसे मेरे घर में बहुत पहले से घरौंदा बनाने का दायित्य छोटका भैया(मझले भैया को मैं इसी नाम से बुलाता हूं) उठाते थे। पहले मिट्टी के गारे और इंटो से और बाद में गत्ते और रंगीन कागज से । उनके बनाए घरौंदे का एक्सक्लूसिव गुण था कि उसमें बिजली की वायरिंग भी होती थी। पूरे मोहल्ले में हमारा घरौंदा सबसे अच्छा होता । भैया को घरौंदा बनाने का इतना शौक था कि जब भी किसी अच्छे घर का डिज़ाइन देखते उसे याद कर लेते और फिर दिवाली के घरौंदे में उस डिजाइन का इस्तेमाल करते । मोहल्ले और इलाक़े के अनुभवी लोगों के साथ बाबुजी भी तब भैया में भविष्य का इंजीनियर देखते थे। हालांकि घरौंदा बनने के दौरान कई बार अनाधिकार छेड़छाड़ करने पर भैया का थप्पड़ खाकर मेरा उत्साह आंसूओं में बह जाता लेकिन जल्दी ही मां के आंचल की गरमाहट इस पिघले उत्साह को वापस दिल में लौटा देती। घरौंदा देखने पूरा मोहल्ला जमा होता और दिवाली बाद के कुछ दिनों तक सबसे बढ़िया घरौंदा बनाने वाले के छोटे भाई होने के गर्वातिरेक में मैं मगन रहता।
भैया जब हाईस्कूल के बाद पढ़ाई करने मुजफ्फरपुर चले गए तब भी ये सिलसिला बना रहा वो दिवाली से पहले घर आ जाते और फिर घरौंदो की तैयारी शुरू हो जाती। स्कूल जाने से पहले और लौट के आने के बाद कई हफ्ते तक मैं दिवाली के अलावा और कुछ सोचता ही न था। खेलना, दोस्तों से मिलना सबकुछ कम हो जाता या फिर बंद उनसे मिलने पर बात होती तो घरौंदे की। हर दिन घरौंदे को धीरे धीरे करके आकार लेते हुए देखना किसी आर्किटेक्ट के पूरे होते सपने जैसा होता और हमारी खुशी भी घरौंदे की तरह बढ़ती रहती । १९९० में छोटका भैया समय पर घर नहीं आ सके शायद परीक्षाओं के कारण और तब घरौंदा बनाने की कमान मेरे कंधो पर आई । पहली बार जब घरौंदा बना रहा था तब बाबूजी ने पूछा तुम्हारे घरौंदे का बजट कितना है मैंने हिसाब लगाकर बताया तीस रूपये। इसके बाद उन्होंने इसके लिए अपनी तरफ से ५ रुपये के अनुदान की घोषणा की मेरी खुशी के तो कहने ही क्या ? पचास पैसा देते तो साथ में सोच समझकर खर्च करने की हिदायत भी और वही बाबूजी पांच रुपये देने का एलान कर रहे थे मेरे लिए ये बड़ी उपलब्धि थी। पूरे उत्साह से घरौंदा बनाना शुरू किया किसी तरह बाकी तो सबकुछ हो गया लेकिन बिजली की वायरिंग आती नहीं थी तो भैया की मदद मांगी और फिर घरौंदा तैयार हुआ। घर के आसपास हरियाली तैयार करने के लिए लकड़ी के बुरादे को हरे रंग में रंग देते हम लोग। तब घर में साइकिल भी नहीं थी लेकिन घरौंदे के पोर्च में खड़ी करने के लिए खिलौना वाली अंपाला और मारूती कार जरूर थी, एक एंबेसडर भी थी जिसे हम घरौंदे के बगल में या फिर पिछवाड़े में खड़ी करते ये अहसास शायद तब भी था कि अब ये कार पुरानी हो चुकी है, कागज का बना टीवी और प्लास्टिक का फ्रिज भी था। मेहमानों के लिए सोफे और बढ़िया सा अंग्रेजी स्टाइल वाला टी-सेट भी था जिसमें चाय की केतली के साथ दूध और चीनी के लिए अलग प्याली होती थी। उस समय तक हमने ऐसे टी सेट खिलौनौं और फिल्मों में ही देखे थे आजकल बॉस के केबिन में देखते हैं। छत पर लगा लकड़ी के सींक का बना एंटेना हमारे सपनों जैसे उंचा था और घरौंदा हमारे सपनों की तामीर। ये सारे खिलौने हम बड़ी जतन से सालों भर संभाल कर रखते और सिर्फ दिवाली के समय बाहर निकालते सच तो ये है कि वो खिलौने नहीं हमारे सपने थे । घरौंदा जो हर साल हमारे आंगन में बनता और दिलों में सपने जगाता।
आज जिंदगी की हक़ीकत ने इस सपने को आगर पूरी तरह से तोड़ा नहीं तो छोटा ज़रूर किया है। लेकिन तकलीफ इस बात की नहीं बल्कि इस बात की है कि वो घरौंदे कही खो गए हैं पांच साल पहले दिवाली मे घर गया था लेकिन ना तो मेरे घर में ना ही किसी औऱ घर में घरौंदा नज़र आया। सपने तो बिखरे ही सपना दिखाने वाले घरौंदे भी गायब हो गए। दिवाली के दिन बहने इसी घरौंदे में मिट्टी के खिलौने वाले बर्तनों में खील-बताशे भर कर पूजा करतीं। बाद में ये खील बताशे भाइयों को खाने के लिए मिलते। बताशे की मिठास भाई बहन के रिश्तों में घुलती। जारी...
निखिल रंजन
स्वयंवर के मेले में...2
बहरहाल, ताबीज पहनने की मेरी ज़िद के बाद हम मय गाड़ी दूरदर्शन अहमदाबाद पहुंचे। यह कहने में मुझे कोईगुरेज़ नहीं कि डीडी के इस केंद्र की स्थिति दूसरे रीज़नल न्यूज़ यूनिट के मुकाबले बेहतर है। मेरे कहने का गर्ज ये कि कैंटीन के खानें में मुझे काकरोच नहीं दिखे। खाने से बास भी नहीं आ रही थी। मुझे निराशा हुई। अहमदाबाद डीडी के गेस्ट हाउस में बहुत झिझकते हुए मुझे एक कमरा दे दिया गया। कमरा कोई खास तरह से साफ़ नहीं था। बरसात का मौसम था यह साफ दिख रहा था क्योंकि कमरे को खोलते ही कई मेंढक मेरी तरफ लपके।
खैर काफी जद्दोजहद करने के बाद मुझे तरनेतर- जो कि ज़िला सुरेंद्रनगर में है. राजकोट के पास- भेजने के लिए इंतज़ामात किए गए। उनका कहना था कि हमने इसे स्थानीय स्तर पर सन १९९४ में खूब कवर किया था और अब इसे दोबारा २००७ में कवर करने का कोई औचित्य नहीं। पर मेरे गुणसूत्रों का दोष.. मैंने फिर ज़िद पकड़ ली। कि यह सवरेज तो मुझे करनी बही है। मैं अपने बास से वादा कर आया था। एक नई तरह की रिपोर्टर्स डायरी देने का।
गाड़ी मिली। ड्राइवर भी। वही जिसने मेरे ताबीज पर बवाल काटा था। एक कैमरा-कम-लाइटिंग असिटेंट। एक साउंड तकनीशियन। और हां... एक उनींदा कैमरामैन .. जो सारी राह मुझे इस बेकार की मगजमारी में न पड़ने की सलाह देता रहा। धूप सीधे चेहरे पर पड़ती रही। शाम के वक्त हम तरनेतर पहुंचे। शानदार सड़क। चौड़ी। हरियाली..गो कि बरसात का मौसम था। लेकिन पेड़ ज़्यादा बड़े नहीं। नाटे। सीधे मेले की जगह पर पहुंचे। मेले की जगह में सुगबुगाहट शुरु हो चुकी थी। चरखियां लगने लगीं थी। दुकानों के लिए बल्लियां लगाई जा रही थी। लोग बाग एक खास तरह की गाड़ी छकड़े से आ जा रहे थे। आगे से मोटरसाइकिल, पीछे से उसमें तांगा जोड़ दिया जाए तो क्या गाड़ी बनेगी.. वही। एक गाडी में पचीस-सत्ताइस लोग। उस भीड़ में घुस कर पिसते हुए सफर करने का लुत्फ ही क्या है।
मेले की जगह पर ज़्यादा कुछ नहीं थी। हमें पीने का भी नहीं मिला। जो भी था खारा। लेकिन लोग बड़े मीठे थे। बाहर से आया जानकर और अधिक मदद करते। दुकानें भी देखी। हर जगह मौदी के कट-आउट। बड़ी होर्डिंग्ज़। मोदीमय गुजरात। कहीं गांधी नहीं। मन बुझ गया।
Tuesday, September 25, 2007
स्वयंवर के मेले में...
दोस्तों को शिकायत रही कि भगजोगनी की चमक बहुत दिनों से दिखाई नहीं दे रही... क्या करूं.. पेट की खातिर दर-दर भटकना हमारी नियति है। है कि नहीं.. वैसे नियति से कोई शिकायत भी नही। हमारी मजबूरी का हम बहुत संजीदगी से लुत्फ़ ले रहे हैं।
एक कवरेज के सिलसिले में गुजरात जाना पड़ गया। तरनेतर। ये अहमदाबाद से तरकीबन ,सवा दो सौ किलोमीटर दूर है। राजकोट की तरफ। जाने की बात हवा में उछली तो एक साथ ही खुशी भी हुई और बेचैनी भी। कहां जा रहा हूं मैं... गांधी के गुजरात या मोदी के ? बहरहाल, अहमादाबाद में हमारे दूरदर्शन के ड्राइवर ने मेऱा बहुत स्वागत किया। अच्छा लगा कि यहां मेज़बानी की शानदार परंपरा है। अहमदाबाद स्टेशन से दफ़्तर की ओर जाते वक्त शैलेश ने वे दुकानें दिखाईं, जिन्हें मोदीत्व के रखवालों ने मटियामेट कर दिया था। उसकी आवाज़ में पता नहीं क्यों.. एक अजीब-सी हैरान करने वाली खनक थी। मोदी का गुजरात गांधी के गुजरात पर हावी था।
उसी दिन यानी तेरह सितंबर को हम .. यानी कैमरा टीम तरनेतर के लिए निकल पड़े। रास्ता शानदार था। शानदार इसलिए क्योंकि सड़क समतल थी। गड्ढे नहीं थे। हमें हमेशा लगता है कि भारत के देहातों में सड़कें बेहद खराब हैं। लगना बेहद स्वाभाविक है। दरभंगा से उधर जयनगर की तरफ जाने वाले मेरे बिहारी मित्र मुझसे इत्तफाक रखेंगे कि कैसे ५५ किलोमीटर की दूरी को छह सात घंटे में पूरा किया जाता है।
अस्तु, गणेश चतुर्थी के दिन से तरनेतर का यह मेला शुरु होता है। गुजरात के हर रंग को यहां देख सकते हैं आप। टीम के साथ यहां आने वाला हमारा ड्राइवर बदल गया था। मेरे गले का ताबीज उसे पेरशान करता रहा। मेरे लाख समझाने पर भी कि यह ताबीज मेरी मां का पहनाया है इसका इस्लाम से कोई ताल्लुक नहीं , उसे कत्तई यकीन नहीं हुआ? .....
जारी...
Wednesday, July 4, 2007
सिनेमा पागल हाथी हो गया है...
सिनेमा भारतीय जीवन का जरूरी हिस्सा बना हुआ है। रोटी जैसा जरूरी। छुट्टी का वक़्त हो, या परिवार में उत्सव का, फ़िल्में वहां मौजूद रहती हैं। टेलिविज़न की पहुंच बेडरुम तक है। लेकिन वह सोने वालों की नींद पर डाका डाल सके, इसके लिए उसके पास सिनेमा ही हथियार है। टीवी पर आज सिनेमा पर आधारित कार्यक्रम सबसे ज़्यादा होते हैं। यह हिस्सा बढ़ेगा, अगर न्यूज़ चैनलों पर मीकाओं-राखी सावंतों, शाहिद-करीनाओं, और शिल्पा-गेरों के प्रसंगों को भी शामिल कर लें। अभिषेक और ऐश्वर्य के विवाह जैसे ब्रेकिंग न्यूज़ तो ख़ैर हैं ही।
अख़बारों में भी सिनेमाई ख़बरों के लिए अलग से सप्लीमेंट होता है, जो चाय की प्याली के साथ गरमा-गरम गॅसिप परोसता है। (तस्वीरों पर कोई टिप्पणी नहीं- सखेद)। लब्बोलुआब यह कि यह कि हम अपने निजी और सामाजिक जीवन की भी सिनेमा के बग़ैर कल्पना करें तो वह श्वेत-श्याम ही दिखेगा।
आपने कभी सोचा है कि क्या आपकी कोई मौलिक कल्पना शेष बची भी है? क्या सपने आपके अपने हैं? अख़बारों में विज्ञापन से शुरु हुई सुबह रात में किसी चैनल के मूवी मसाला या ख़बरें बालिवुड की पर ख़त्म होती हैं। वह भी तब जब आप बेहद शरीफ क़िस्म के इंसान हों, वरना इस समापन को बहुत दूर तलक ले जाने की ढेर सारी संभावनाएं मौजूद हैं।
फ़िल्मों को लेकर भारत में इतना दीवानापन है, फरि भी शबाना आज़मी को क्यों कहना पड़ता है कि भारत में सिनेमा देखने का संस्कार नहीं है? ज़ाहिर है, शबाना की इस शिकायत को प्रेमचंद के इस कथन से जोड़ा जा सकता है जहां उन्होंने कहा है कि इसे यानी सिनेमा को कोरा व्यवसाय बना कर हमने उसे कला के ऊंचे आसन से खींचकर ताड़ी या शराब की दुकान तक पहुंचा दिया है। प्रेमचंद को १९३६ में लगा था कि अधनंगी तस्वीरों और नाचों से जनता को लूटना आसान नहीं है। लेकिन, २००७ आते-आते आम जनता की समझ की जड़ में इतना मट्ठा डाला गया कि प्रेमचंद की पीढ़ी का सपना पृष्ठभूमि में चला गया है। उसे वाद का जामा पहना कर दरकिनार कर दिया गया है।
अगर एनडीटीवी के प्रबुद्ध पत्रकार रवीश कुमार सरीखे लोग उस दर्शक की तलाश में हैं, जो विदर्भ के शापित किसानों की जगह की कमर देखना चाहता है, तो इसके पीछ कई वजहें हैं। अव्वल बात तो ये कि दर्शकों की पसंद वास्तव में बदल गई है। वर्षों पहले महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बुरे साहित्य की लोकप्रियता के संदर्भ में कहा था कि मक्खियां गुड़ पर नहीं बहते व्रण पर ज़्यादा बैठती हैं। यह कथन आज भी सिनेमा और टीवी कार्यक्रमों के बारे में उतना ही सच है। वरना क्या वजह है कि शकीरा ख़बर हैं. आधे घंटे या ज़्यादा का मसाला है, जिसे तानने की जुगत में हमारे अगुआ चैनल भिड़ जाते हैं? वहीं विदर्भ और तेलंगाना की समस्याएँ एकाध ज़िम्मेदार चैनलों पर ही जगह पा सकती हैं। दूसरी बात यह कि दर्शक अगर ब्लू फ़िल्म देखना चाहें तो क्या हम उसे भी परोस दें?
सिनेमा पर लिखना कभी भी अच्छा और गंभीर काम नहीं माना गया। सिनेमा पर प्रेस या जनता का बौद्धिक अंकुश कभी नहीं रहा। सिनेमा ख़ासकर हिन्दी सिनेमा पर जितनी लेखकीय और पत्रकारीय नज़र रहनी चाहिए थी, उसका एक फ़ीसद भी नहीं रहा। नतीजतन यह पागल हाथी हो गया। फिर उस पर अंकुश लगाने की ज़िम्मेदारी एक ऐसी एजेंसी के हाथों में है, जो सरकारी है, और सरकारी एजेंसियों की गंभीरता और नीतिगत तेज़ी का तो सबको पता है। अख़बारों ने भी सिनेमा का इस्तेमाल किया। उसी तरह किया, जैसे आजकल के टीवी चैनल कर रहे हैं। वरना क्या वजह है कि सिनेमा के नाम पर आधे घंटे का विशेष चलाने वाले चैनल या चार पेज़ का सप्लीमेंट छापने वाले अख़ाबार सत्यजित या ऋत्विक घटक या श्यानम बेनेगल पर ९० सेकेंड की स्टोरी या दो कालम की खबर नहीं छाप सकते?
सिनेमा भारतीय सांस्कृतिक लोकाचारों को उसकी ही ज़मीन से बेदखल करता जा रहा है। यह हमारे लोक-व्यवहार को नियंत्रित करने लगा है। पहनावे और बोलचाल की भाषा पर फिल्मों का असर तो सब महसूस कर रहे हैं। साथ ही, यह हमारी देहभाषा तय करने लगा है। वैले यह भी सच है कि समाज की सारी विकृतियों की जड़ सिनेमा ही नहीं है। पर अगर इस तर्क के समांतर सोचें कि समाज का ही अक्स सिनेमा में दिखता है, तो समाज पर पड़ने वाले सिनेमाई प्रभाव को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है.। सो, अगर फ़िल्म खलनायक के प्रतिनायक संजय दत्त और डर के शाहरुख़ ख़ान दर्शकों की सहानुभूति बटोरने कामयाब होते हैं, तो इसे सामाजिक चिंता का विषय माना जाना चाहिए। माचिस और फ़ना बेशक संवेदनशील फ़िल्में हैं। लेकिन आखिरकार ये देशविरोधी आतंकवादियों को ही महिमामंडित करती हैं। फिर ऐसी भी फ़िल्में हैं, जिनमें माफिया सरगनाओं के जीवनचरित को दिखाया गया है। और इसमें उन्हें लार्जर दैन लाइफ चित्रित किया गया है। यह सिलसिला गैंगस्टर तक आगे भी कायम है। जिसमें माफिया सरगना की प्रेमिका पुलिस इंस्पेक्टर नायक की हत्या कर देती है। दर्शक उसके इस सत्कर्म पर तालियां बजाता हुआ हाल छोड़ता है। दर्शकों की मनोवृति में आया यह बदलाव संस्कृत नाटकों के साधारणीकरण की प्रक्रिया के रिवर्स गियर में जाने और निचले दर्जे की रसानुभूति का उदाहरण है। रामचंद्र शुक्ल के मुताबिक, निचले दर्जे की रसानुभूति वह स्थिति है, जिसमें दर्शकों की सहानुभूति और तादात्म्य बुरे पात्रों के साथ हो जाती है।
बहरहाल, सामाजिक मूल्यों मे और -बुरे को पारिभाषित करने के इस अराजक माहौल में ज़िम्मेदारी तय करना आसान नहीं है। लेकिन यह तर्क सिनेमा को नंगा नाच करने की छूट नहीं दे देता। बाज़ार के चौराहे पर खड़ा सिनेमा पटरी वाले दुकान सरीखा है, जो जब तक मुनाफे में रहेगा तभी तक चल सकेगा। निर्देशक भी तभी तक सफल है, जब तक वह निर्माता को कमा कर दे सके।
ऐसे में बहुत खुले दिल से सोचें तो भी सेरोगेट विज्ञापन से लेकर मसालेदार आइटम नंबर तक , स्तुत्य तो नहीं लेकिन क्षम्य ज़रूर हो सकते हैं। कोई बेनेगल, निहलाणी या घोष पागल हो रह इस हाथी पर अंकुश लगाने की कोशिश तो करता है, लेकिन मुख्यधारा में नहीं। मुख्यधारा के तो मणिरत्नम को भी जवाब है। और नैतिकता.... बालिवुड में यह अनचीन्हा शब्द है।
मंजीत ठाकुर
Monday, May 14, 2007
धान पर ध्यान
चीन मे एक कहावत है- दुनिया की सबसे बेशकीमती चीज़ हीरे-जवाहरात और मोती नहीं, धान के पांच दाने हैं। यह कहावत तब भी सच थी, जब बनी होगी और आज भी उतनी ही सच है। शायद इसीलिए पश्चिमी दुनिया जहां भेड़ों, सू्अरों, कुत्तों और इंसानों की क्लोनिंग पर ध्यान दे रहा है। वहीं भूख से जूझ रहे एशिया में धान के जीनोम की कड़ियां खोजी जा रही हैं। नेचर पत्रिका में तो कुछ महीने पहले धान के जीनोमिक सीक्वेंस को छापा भी गया है।
एशिया समेत दुनिया के बड़े हिस्से में तीन अरब लोगों का मुख्य भोजन चावल है। लेकिन इस फसल से भोजन पाने वाली आबादी का ज़्यादातर हिस्सा अभी भी भूखा ही है। दुनिया भर में ८० करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं और करीब ५० लोख लोगों की मौत कुपोषण की वजह से हो जाती है। आंकड़ो का और भी भयावह बनाता है यह तथ्य कि दुनिया की आबादी में हर साल ८ रोड़ ६० लाख लोग जुड़ जाते हैं।इस तेज़ी से बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए अगले २० साल में चावल की उपज को ३० फ़ीसदी तक बढ़ाना होगा। लाख टके का सवाल है कि यह चावल कहां और कैसे पैदा होगा?
आमतोर पर उपज बढ़ाने के दो तरीके सर्वस्वीकृत हैं। पहला, खेती के लिए ज़मीन को बढ़ाना या फिर पैदावार में बढ़ोत्तरी करना। साठ के दशक के पहले, पहले वाले विकल्प को ज्यादा आसान मानकर उसी पर अमल किया गया। परिणाम सबके सामने है। हमने विश्वभर में बहुमूल्य जंगलों की कटाई कर उनमें खाद्यान्न बो दिए और प्रदूषण और पारिस्थितिक असंतुलन को न्यौता दिया। लेकिन साठ के दशक में नॉर्मन बारलॉग जैसे वैज्ञानिकों ने स्थिति को नाजुकता को समझकर दूसरे विकल्प यानी पैदावार बढ़ाने के लिए बीजों की गुणवत्ता सुधार और तकनीकी साधनों की ओर ध्यान दिया। उस प्रयास का परिणाम निकला हरित क्रांति के रूप में। जैसे ही पौधों की नई किस्मे पहले मेक्सिको और फिर पूरे विश्व में बोई जाने लगी फसल उत्पादन में भारी बढ़तोत्तरी हुई। ख़ासकर एशिया में यह वृद्धि की दर २ फीसदी सालाना के आसपास रही।
हरित क्रांति के सफर में कुछ पड़ाव भी आए। पिछले कुछ वर्षों में उत्पादन में वृद्धि की दर मामूली रही, तो यह सोच लिया गया कि चावल उत्पादन अब अपने चरम पर पहुंच चुका है और इसमें अधिक विकास की अब संभावना नहीं बची। ऐसे में सीमांत भूमियों उत्पादन बढ़ाना एक बड़ी चुनौती रही है, जहां अधिकतर फसलें कीटों के प्रकोप, रोगों या सूखे की वजह से कत्म हो जाती है।
कई वैज्ञानिक मानते हैं किदुनिया के सबसे गरीब व्यक्ति तक खाना पहुंचान का उपाय जीन अभियांत्रिकी से सुधारी गई फसलें ही हो सकती हैं। ये फसलें प्राकृतिक आपदाओंका सामा करने में अधिक सक्षम हौ । जीएम फसलों की क्षमता तब एक बार फिर उजागर हुई। जीएम फसलों की क्षमता तब एक बार फिर उजागर हुई ब एक चीनी अध्ययन में कीट प्रतिरोधी जीएम चावल की किस्म में दस फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गई? यह सिर्फ उत्पादन बढ़ाने का ही मामला नहीं है, बल्कि यह कीटनाशकों के अत्यधिक हो रहे प्रयोग को नियत्रित करने में भी सहायक होगा। चीन में ऐसे कीट प्रतिरोधी क़िस्में उगाने वाले किसानोें में कीटनाशकों से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं में नाटकीय सुधार देखा गया है।
लेकिन हरित क्रांति की राह में पड़ाव भी आए। वैसे तो, १९८३ से ही चावल के बी संकर बीज उपलब्ध थे, लेकिन १९८७ में हरित क्रांति के दूसरे चरण से शुरूआत बड़े स्तर पर की गई। इसमें 'अधिक चावल उपजाओ' कार्यक्रम को प्रधानता दी गई। इस द्वितीय चरण में १४ राज्यों के १६९ ज़िलों का चुनाव किया गया। संकर बीजों की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए १६९ में से १०८ ज़िलों में चावल क्रांति को प्राथमिकता दी गई। दरअसल, इनमें हरियाणा के ७ और पंजाब के ३ ज़िले भी शामिल हैं, जिन्हें परंपरागत तौर पर गेहूं उत्पादक माना जाता था। अन्य प्रमुख राज्यों में से मध्यप्रदेश(छत्तीसगढ़ सहित) के ३० उत्तरप्रदेश-उत्तरांचल के ३८, बिहार के १८, राजस्थान के १४ और महाराष्ट्र के १२ ज़िले।
दूसरे चरण की हरित क्रांति का ही परिणाम है कि भारत आज खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) खाद्यान्न दान करने दूसरा सबसे बड़ा संगठन है। चवाल के जीनोम की सिक्वेंसिंग इंटरनेशनल राइस जीनोम सिक्वेंसिंग प्रोजेक्ट ने की है। इसका डाटाबेस भारत समेत जापान, चीन ताईवान, कोरिया, थाईलैंड, अमेरिका, कना़डा, फ्रांस, ब्राजील, ब्रिटेन और फिलीपीन्स के वैज्ञानिकों के लिए निशुल्क उपलब्ध है। ज़ाहिर है, यहां भूमंडलीकरण के सकारात्मक पहलू सामने आए हैं।
दुनिया में करीब १२० करोड़ लोग रोजाना एक डॉलर से भी कम पर गुजारा करते है। ऐसे में , रोग, पे्स्ट, सूखा और लवणता प्रतिरोधी धान की फसल तीसरी दुनिया के कृषि परिदृश्य में क्रांति ला सकती है जाहिर है, यह भूखों के हित में होगा।
मंजीत ठाकुर
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